अमित कुमार दास का जन्म बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज कस्बे में रहनेवाले एक किसान परिवार में हुआ। उनके परिवार के सभी लड़के बड़े होकर अपने घरों की खेती में हाथ बंटाया करते थे। मगर अमित इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे। वे एक इंजीनियर बनने का सपना देखते थे, लेकिन परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्च उठा सके। जैसे-तैसे अमित ने सरकारी स्कूल से पढ़ाई पूरी की और उसके बाद पटना के एएन कॉलेज से साइंस स्ट्रीम से 12वीं की परीक्षा पास की।
12वीं तक आते-आते अमित के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मुश्किलों को हल करने की थी। ऐसे में उनके दिमाग में मछली पालन से लेकर फसल का उत्पादन दोगुना करने के लिए ट्रैक्टर खरीदने जैसे ख्याल आने लगे। लेकिन जब पता लगा कि इसके लिए कम से कम 25000 रूपये की जरूरत होगी, तो उन्हें अपना सपना धुंधलाता हुआ सा नजर आने लगा। स्थितियां उनकी समझा से परे थीं, पर आगे बढ़ने का सपना दिल में पक्का हो चुका था। परिवार की माली हालत सुधारने का जब कोई विकल्प सामने नहीं आया, तो अमित ने खुद को उस स्थ्तिी से दूर किया। सिर्फ 250 रूप्ये लेकर वे दिल्ली की ओर रवाना हो गये। दिल्ली पहुंच कर अमित को जल्द ही अहसास हो गया कि वह इंजीनियरिंग की डिग्री का खर्च नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में वह पार्टटाइम ट्यूशंस लेने लगे। साथ ही, उन्हें दिल्ली विश्वविघालय से बीए की पढ़ाई शुरू कर दी।
पढ़ाई के दौरान अमित को महसूस हुआ कि उन्हें कंप्यूटर सीखना चाहिए। इसी मकसद के साथ वे दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर टेªनिंग सेंटर पहुंचे। सेंटर की रिसेप्शनिस्ट ने जब अमित से अंगरेजी में सवाल किये, तो वह जवाब में कुछ नहीं बोल पाये, क्योंकि अंगरेजी में भी उनके हाथ तंग थे। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। उदास मन से लौट रहे अमित के चेहरे पर निराशा देख कर बस में बैठे एक यात्री ने उनकी उदासी का कारण जानना चाहा। वजह का खुलासा हुआ तो उसने अमित को इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। अमित को यह सुझाव अच्छा लगा और बिना देर किये तीन महीने का कोर्स ज्वॉइन कर लिया।
कोर्स पूरा होने के बाद अमित में एक नया आत्मविश्वास जाग चुका था। उसी आत्मविश्वास के साथ अमित फिर से कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट पहुंचे और प्रवेश पाने में सफल हो गये। अब अमित को दिशा मिल गयी थी। छह महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया। अमित की इस उपलब्धि को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन वर्ष का प्रोग्राम ऑफर किया। प्रोग्राम पूरा होने पर इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया। वहां पहली सैलरी के रूप् में उन्हें 500 रूपये मिले।
कुछ वर्ष काम करने के बाद अमित को इंस्टीट्यूट से एक प्रोजेक्ट के लिए इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इनकार कर दिया। वजह थी मन में अपना कारोबार करने की इच्छा। उस समय अमित की उम्र 21 वर्ष थी। कारोबार की इच्छा रखने वाले अमित ने जॉब छोड़ने का फैसला लिया। कुछ हजार रूपये की बचत से दिल्ली में एक छोटी-सी जगह किराये पर ली और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी 'आइसॉट' शुरू की। 2001 में इस शुरूआत से अमित काफी उत्साहित थे, लेकिन मुश्किलें खत्म नहीं हुई थी। कुछ महीनों तक उन्हें एक भी प्रोजेक्ट नहीं मिला था। गुजारे के लिए वे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रात में 8 बजे तक पढ़ते और फिर रात भर बैठ कर सॉफ्टवेयर बनाते।
धीरे-धीरे समय बदला और अमित की कंपनी को प्रोजेक्ट मिलने लगे। अपने पहले प्रोजेक्ट के लिए उन्हें 5000 रूपये मिले। अमित अपने संघर्ष के बारे में बताते हैं कि लैपटॉप खरीदने की क्षमता नहीं थी, इसलिए क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए वे पब्लिक बसों में अपना सीपीयू साथ ले जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया और इआरसिस नामक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उसे पेटेंट भी करवाया।
आइसॉफ्ट ने किया सिडनी का रूख.....

अब अमित के सपनों को उड़ान मिल चुकी थी। 2006 में उन्हें ऑस्टेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला। इस अवसर ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर दिया। इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला कर लिया।
'आइसॉट' सॉफ्टवेयर टेकनोलॉजी ने कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए तरक्की की। आज उसने ऐेसे मुकाम को छू लिया, जहां वह 200 से ज्यादा कर्मचारीयों और दुनिया भर में करीब 40 क्लाइंट्स के साथ कारोबार कर रही है। इतना ही नहीं 150 करोड़ रूपये के सालाना टर्नओवर की इस कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई, दिल्ली और पटना में भी स्थ्ति हैं।
समाजिक जिम्मेदारी पर दे रहे हैं जोर इस ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी अमित कुमार दास समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं भूले थे। वर्ष 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कुछ ऐसा करने का सोचा, जिस पर किसी भी पिता को गर्व हो। कहीं-न-कहीं उनके मन में अपने राज्य में शिक्षा के अवसरों की कमी का अहसास भी था। बस इसी अहसास ने उन्हें फारबिसगंज में एक कॉलेज खोलने की प्ररणा दी।
अमित ने वर्ष 2010 में यहां कॉलेज स्थापित किया और उसका नाम अपने पिता मोती लाल दास के पर रखा- मोती बाबू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का सपना देखनेवाले बिहार के अररिया जिले के युवाओं के लिए इससे अच्छा उपहार कोई और नहीं हो सकता था।
अमित ने अपनी पहचान उन चुनिंदा लोगों में करवायी है, जो जीवन में एक सफल मुकाम पाने के बाद समाज को लौटाने के लिए सक्रिय रहते हैं। सालों पहलें जिस कमी के कारण अमित को अपना राज्य छोड़ना पड़ा, आज उसी कमी को दूर करने के लिए वे प्रयासरत हैं।
करोड़ों रूपये के निवेश के साथ वे अपने राज्य को एक शिक्षण संस्थान और सुपर स्पेशिलिटी हॉस्पिटल का उपहार दे चुके हैं और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए सरकार की मदद भी कर रहे हैं।
समाज के लिए कुछ करने की प्ररणा के बारे में बताते हुए अमित कहते हैं कि हम सभी को अपने समाज के प्रति उतना ही जिम्मेवार होना चाहिए, जितने कि अपने परिवार के प्रति होते हैं। इसलिए समाज की भलाई की दिशा में कुछ करने के लिए जितना संभव हो, उतना प्रयास हम सभी को करना चाहिए।
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संघर्षों से रहा बचपन का नाता
12वीं तक आते-आते अमित के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मुश्किलों को हल करने की थी। ऐसे में उनके दिमाग में मछली पालन से लेकर फसल का उत्पादन दोगुना करने के लिए ट्रैक्टर खरीदने जैसे ख्याल आने लगे। लेकिन जब पता लगा कि इसके लिए कम से कम 25000 रूपये की जरूरत होगी, तो उन्हें अपना सपना धुंधलाता हुआ सा नजर आने लगा। स्थितियां उनकी समझा से परे थीं, पर आगे बढ़ने का सपना दिल में पक्का हो चुका था। परिवार की माली हालत सुधारने का जब कोई विकल्प सामने नहीं आया, तो अमित ने खुद को उस स्थ्तिी से दूर किया। सिर्फ 250 रूप्ये लेकर वे दिल्ली की ओर रवाना हो गये। दिल्ली पहुंच कर अमित को जल्द ही अहसास हो गया कि वह इंजीनियरिंग की डिग्री का खर्च नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में वह पार्टटाइम ट्यूशंस लेने लगे। साथ ही, उन्हें दिल्ली विश्वविघालय से बीए की पढ़ाई शुरू कर दी।
अंगरेजी बनी रास्ते का कांटा
पढ़ाई के दौरान अमित को महसूस हुआ कि उन्हें कंप्यूटर सीखना चाहिए। इसी मकसद के साथ वे दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर टेªनिंग सेंटर पहुंचे। सेंटर की रिसेप्शनिस्ट ने जब अमित से अंगरेजी में सवाल किये, तो वह जवाब में कुछ नहीं बोल पाये, क्योंकि अंगरेजी में भी उनके हाथ तंग थे। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। उदास मन से लौट रहे अमित के चेहरे पर निराशा देख कर बस में बैठे एक यात्री ने उनकी उदासी का कारण जानना चाहा। वजह का खुलासा हुआ तो उसने अमित को इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। अमित को यह सुझाव अच्छा लगा और बिना देर किये तीन महीने का कोर्स ज्वॉइन कर लिया।
कोर्स पूरा होने के बाद अमित में एक नया आत्मविश्वास जाग चुका था। उसी आत्मविश्वास के साथ अमित फिर से कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट पहुंचे और प्रवेश पाने में सफल हो गये। अब अमित को दिशा मिल गयी थी। छह महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया। अमित की इस उपलब्धि को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन वर्ष का प्रोग्राम ऑफर किया। प्रोग्राम पूरा होने पर इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया। वहां पहली सैलरी के रूप् में उन्हें 500 रूपये मिले।
बचत से शुरू किया आइसॉट
कुछ वर्ष काम करने के बाद अमित को इंस्टीट्यूट से एक प्रोजेक्ट के लिए इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इनकार कर दिया। वजह थी मन में अपना कारोबार करने की इच्छा। उस समय अमित की उम्र 21 वर्ष थी। कारोबार की इच्छा रखने वाले अमित ने जॉब छोड़ने का फैसला लिया। कुछ हजार रूपये की बचत से दिल्ली में एक छोटी-सी जगह किराये पर ली और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी 'आइसॉट' शुरू की। 2001 में इस शुरूआत से अमित काफी उत्साहित थे, लेकिन मुश्किलें खत्म नहीं हुई थी। कुछ महीनों तक उन्हें एक भी प्रोजेक्ट नहीं मिला था। गुजारे के लिए वे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रात में 8 बजे तक पढ़ते और फिर रात भर बैठ कर सॉफ्टवेयर बनाते।
धीरे-धीरे समय बदला और अमित की कंपनी को प्रोजेक्ट मिलने लगे। अपने पहले प्रोजेक्ट के लिए उन्हें 5000 रूपये मिले। अमित अपने संघर्ष के बारे में बताते हैं कि लैपटॉप खरीदने की क्षमता नहीं थी, इसलिए क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए वे पब्लिक बसों में अपना सीपीयू साथ ले जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया और इआरसिस नामक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उसे पेटेंट भी करवाया।
आइसॉफ्ट ने किया सिडनी का रूख.....

अब अमित के सपनों को उड़ान मिल चुकी थी। 2006 में उन्हें ऑस्टेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला। इस अवसर ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर दिया। इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला कर लिया।
'आइसॉट' सॉफ्टवेयर टेकनोलॉजी ने कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए तरक्की की। आज उसने ऐेसे मुकाम को छू लिया, जहां वह 200 से ज्यादा कर्मचारीयों और दुनिया भर में करीब 40 क्लाइंट्स के साथ कारोबार कर रही है। इतना ही नहीं 150 करोड़ रूपये के सालाना टर्नओवर की इस कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई, दिल्ली और पटना में भी स्थ्ति हैं।
समाजिक जिम्मेदारी पर दे रहे हैं जोर इस ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी अमित कुमार दास समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं भूले थे। वर्ष 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कुछ ऐसा करने का सोचा, जिस पर किसी भी पिता को गर्व हो। कहीं-न-कहीं उनके मन में अपने राज्य में शिक्षा के अवसरों की कमी का अहसास भी था। बस इसी अहसास ने उन्हें फारबिसगंज में एक कॉलेज खोलने की प्ररणा दी।
अमित ने वर्ष 2010 में यहां कॉलेज स्थापित किया और उसका नाम अपने पिता मोती लाल दास के पर रखा- मोती बाबू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का सपना देखनेवाले बिहार के अररिया जिले के युवाओं के लिए इससे अच्छा उपहार कोई और नहीं हो सकता था।
बढ़ा रहे हैं नेकी की ओर कदम
अमित ने अपनी पहचान उन चुनिंदा लोगों में करवायी है, जो जीवन में एक सफल मुकाम पाने के बाद समाज को लौटाने के लिए सक्रिय रहते हैं। सालों पहलें जिस कमी के कारण अमित को अपना राज्य छोड़ना पड़ा, आज उसी कमी को दूर करने के लिए वे प्रयासरत हैं।
करोड़ों रूपये के निवेश के साथ वे अपने राज्य को एक शिक्षण संस्थान और सुपर स्पेशिलिटी हॉस्पिटल का उपहार दे चुके हैं और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए सरकार की मदद भी कर रहे हैं।
समाज के लिए कुछ करने की प्ररणा के बारे में बताते हुए अमित कहते हैं कि हम सभी को अपने समाज के प्रति उतना ही जिम्मेवार होना चाहिए, जितने कि अपने परिवार के प्रति होते हैं। इसलिए समाज की भलाई की दिशा में कुछ करने के लिए जितना संभव हो, उतना प्रयास हम सभी को करना चाहिए।
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